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वस्तुतः छत्तीसगढ़ क्षेत्र प्राचीन समय में जैन मतावलम्बियों का प्रमुख क्षेत्र था। कालान्तर में शासन कर रहे कलचुरी वंशज शिव तथा जिन उपासक थे। शिवनाथ नदी के पश्चिम तट पर नगपुरा, धमधा आदि ऐसे स्थान है जो सृजन और उत्थान के साक्षी हैं।
दुर्ग से 15 किलोमीटर पर नगपुरा में तालाब के किनारे एक खंडहर मंदिर है जो एतिहासिक और पुरातत्वीय अनुठी सुन्दरता और उत्कृष्टता का उदाहरण है। यहाँ मिले साक्ष्य श्री पार्श्वनाथ प्रभु के विहार की पुष्टि करते हैं।
कहा जाता है कि कलचुरी वंशज गजसिंह ने श्री पार्श्वनाथ के गणधर श्री केशीस्वामी द्वारा तीर्थंकर महावीर स्वामी की उम्र के 37वें वर्ष में तिंदुक उद्यान में परदेशी राजा निर्मित श्री पार्श्व प्रभु की प्राण प्रतिष्ठा कराई थी यही प्रतिमा श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ में तीर्थपति हैं। इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि चौद पूर्वधर पूज्यपाद भद्रबाहू स्वामी ने इसी प्रतिमा का आलंबन लेकर उवसग्गहरं स्तोत्र को साध्य किया था। तब से प्रतिमा उवसग्गहरं पार्श्व नामांकित हुई। (भद्रबाहू संहिता पृ. 48 खंड।।।) दुर्ग के पत्रकार और साहित्यकार श्री रावलमल जैन ‘मणि’ द्वारा प्रारंभ में नगपुरा में प्राप्त खंडित मूर्ति एवं प्राचीन स्मारक मंदिर को लेकर जीर्णोद्धार कराने का निश्चय किया गया था। किंतु गांव के अंदर स्थान की कमी से भव्य निर्माण को क्रियान्विति करने में कठिनाई आ रही थी फिर भी उन्होंने गांव की मूर्ति के आस-पास कुछ जमीन खरीदी किन्तु इसी क्रम में एक चमत्कार हुआ।
उत्तर भारत के छोटे ग्राम उगना में जो गंडक नदी के किनारे था। भुवनसिंह को कुआँ खुदाई करते समय दूध से भरे गडढ़े से परदेशी राजा निर्मित श्री केशी गणधर प्रतिष्ठिता श्री पार्श्व प्रभु की मूर्ति जीवित सर्पो से लिपटी हुई प्राप्त हुई। ग्रामवासियों को स्वप्न में निर्देश मिला कि ‘‘पार्श्व प्रभु की यह प्रतिमा नगपुरा में जीणोद्धार करा रहे रावलमल जैन ‘मणि’ को सौप दो, वहाँ तीर्थपति के रूप में प्रतिष्ठित होगी।’’ वहीं भुवनसिंह सहित कुछ लोगों को स्वप्न संकेत के अनुसार यह मूर्ति नगपुरा ग्राम लाई जा रही थी कि मेटाडोर ग्राम सीमा के प्रारंभ में ही रूक गयी। अनेक प्रयासों के बावजूद वाहन नहीं हटाया जा सका। इस स्थल का परीक्षण किया गया और इस बात से सुखद अनुभूति हुई कि वहाँ प्रभु पार्श्वनाथ की खंडित चरण पादुका खंडहर हुई देहरी में प्रतिष्ठित हैं।
तब उस जगह पर श्री मणिजी ने खंडहर हुई देहरी का ही जीर्णोद्धार कराने का निर्णय लिया। श्री पार्श्व प्रभु का विहार विच्छेद स्थल का तप-जप की मांगलिकता के साथ तीर्थोद्धार कराया गया और इसी तपोभूमि को श्रद्धालु श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ के नाम से जानते हैं। धीरे धीरे भक्तों की आस्था ने इस तपोभूमि को नया स्वरूप प्रदान कर पूरे विश्व में विख्यात कर दिया। इस पवित्र तीर्थ का नाम आत्म श्रेयार्थियों के मध्य आत्मिक प्रगति के लिए भव्य अर्चना एवं प्रार्थना के साथ स्थापित है। तप-जप की
अलौकिक मांगलिकता यहाँ संचयित है। परम तारक देवाधिदेव श्रीपार्श्व प्रभु की असाधारण अद्वितीय मनमोहक महाप्रभाविक प्रतिमा के दर्शन और पूजन काल में इस स्थान पर सहसा समय रूक जाता है। मस्तिष्क स्थिर हो जाता है। तनावमुक्त हो जाता है।
Location and Brief History
Situated on the bank of river Sheonath, amidst entrancing natural scenery, this shrine of the 23rd Teerthankar Lord Shri Parshwanath commemorates his holy visit to this region about 3000 years ago as a Shraman (A wandering mendicant dedicated to self-realization through self sacrifice). Scattered Jain Sculpture, large number of devotees and dilapidated ancient shrine along with Lord's Foot - prints historically, proves the Lord's journey to this area. The mysterious manner of locating, finding, procuring and then installing this ancient idol also proves categorically, his divine grace. This shrine is virtually an epic of Jain-devotional philosophy engraved on stones. A pilgrimage to this shrine inspires noble conduct, self -discipline, penance and equanimity.
परम उपकारी कविकुलकिरीट महाबसंत सूरिदेव दिव्य आषीषदाता प.पू. श्रीमद् विजय लब्धिसूरीश्वरजी म.सा.
तीर्थ प्रभावक आषीषदाता आचार्य भगवंत प.पू. श्रीमद् विजय विक्रमसूरीश्वरजी म.सा.
तीर्थ पति संबंधित दस्तावेजों के साक्षात्कार प.पू.पं. श्रीमद् अभयसागरजी म.सा.
तीर्थोद्धार मार्गदर्षक प्रतिष्ठाचार्य प.पू. आचार्य भगवंत, प्रज्ञापुरुष श्रीमद् राजयशसूरीश्वरजी म.सा.
तीर्थोद्धार मुहूर्त प्रदाता पूज्य पाद आचार्य भगवंत श्रीमद् विजयरामचंद्र सूरीश्वरजी म.सा.
तीर्थ के रचनाकार साधुता के स्वामी प.पू. श्रीमद् कैलाससागर सूरीश्वरजी म.सा.