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पार्श्व तीर्थ के बारे में

शिलालेख

खंडहरों में कल का वैभव
तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु ने अपने श्रमण काल में विचरण करते हुए पुण्य सलिला शिवनाथ को स्पर्श कर पश्चिमी तट पर (पीपरछेड़ी-नगपुरा) साधना की थी। साधनारत प्रभु के अंकित चरणों को उस समय के लोगों ने तराश कर पूजा-अर्चना के लिए मंदिर में संरक्षित कर लिया। कालांतर में खंडहर हुए इस मंदिर का कलचूरी वंशजों विशेषकर शंकरगण के पौत्र गजसिंह द्वारा निर्माण कराया गया तथा सं. 919 में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरी के पट्टधर पू. आचार्य कक्कूसूरी से अपने 500 शिष्यों के साथ सम्मेतशिखर महातीर्थ जाते हुए नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठा कराई गई (शिलालेख/खंडहरों के वैभव पृ. 229) समय के चपेट में पुनः खंडहर बने मंदिर (चित्र उपर) का जीर्णोद्धार एवं प्रभु के विहार विच्छेद स्थल का तीर्थोद्धार किये जाने का सन 1979 में दुर्ग के रावलमल जैन ‘मणि’ ने संकल्प लिया और सन् 1995 में तीर्थोद्धार-जीर्णोद्धार का काव्यमय निर्माा का प्रथम चरण जन सहयोग से पूरा कराया।

मंगल कल्लाण आवासं की तपोभूमि
पवित्र श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ का नाम आत्म श्रेयार्थियों के मध्य आत्मिक प्रगति के लिए भव्य अर्चना एवं प्रार्थना के साथ स्थापित है। तप-जप की अलौकिक मांगलिकता यहाँ संचयित है। परम तारक देवाधिदेव श्री पार्श्व प्रभु की असाधारण अद्वितीय मनमोहक महाप्रभाविक प्रतिमा के दर्शन औरपूजन काल में इस स्थान पर सहसा समय रूक जाता है। मस्तिष्क स्थिर हो जाता है। तनावमुक्त हो जाता है। प्रकृति की शांत और सुरम्य गोद में व्यक्ति चिदानन्दमय स्वरूप का दर्शन पाता है। आध्यात्मिक सुख के अन्वेषण से आत्मीयता का प्रकाश पाता है। यहाँ प्रभु भक्ति में लोग ऐसे रम जाते है। मानो सबके हृदय एक हों। विभिन्न विश्वासों एवं परिवेश के बावजूद मानवता की पृष्ठ भूमि में वे यहाँ केलवल आम्कि सुख शांति की आशा संजोए होते है। महत्ता मंडित यह तीर्थ संस्कृति की अन्र्तरात्मा की शुचिता बढ़ाता है और पवित्र प्रभा के दर्शन कराता है। जो भी विश्वास के साथ तीर्थ के मुख्य जिनालय की सीढ़ी चढ़ता है वह पवित्र आंतरिक तरंगों की शक्ति से परिपूर्ण हो उज्ज्वलता को थाम लेता है।

Innovation - Renovation & Construction of The Temples
The renovation and construction was the result of innovation and divine-grace with regard to this shrine. The campus houses not only the main temple but a cluster of temples, rest houses. Auditorium etc. The renovation and construction work began in year 1979 continues till date under the ceaseless, supervision of Jain-scholar and thinker Shri Rawal Malji' Jain 'Mani who has dedicated himself to the cause of this shrine, renouncing all his family and social obligations, tirelessly exhorting himself to enrich and expand the campus with modern architecture. The renovation of the ancient foot-prints today has become the symbol of Jain-devotion (JIN BHAKTI) sculpture and culture spreading the gospel of truth, non violence, non-possession, non-stealing and celibacy.

Yesterday - Today - & Tomorrow Past History of The IDOL
Lord Parshwanath is the main deity, the Master God ( MOOL NAYAK ) of this Shrine. As per the Copper-plate records (TAMRA PATRA) this idol was sculpted by King Paradeshi under the guidance of one of Lord's own disciples, Shrimad Kesh Swami and was installed ( ANJAN - SHALAKA ) at Tinduk Udyan at a time when the 24th Teerthankar Lord Mahaveer Swami was of 30 years of age only.

Today and Tomorrow
Queer are the ways of God. Only great saints and seers are ordained to translate and execute his wishes. This is true with this Shrine too, Otherwise the idol found on the remote corner of Northern India could not have been handed over to this shrine and would have not become one of the greatest place of Jain-worship. The aureola or aureole of the present idol is simply divine. It can be experienced only when seen with devotion.

Swami Shrimad Raj Yash Suri the prime disciple of Shrimad Labhdi Vikram Suri was ordained to be the prime force for the renovation of this Shrine. It was under his guidance that a dedicated team of devotees led by Shri Rawalmalji Jain 'Mani' commenced the renovation and construction work in the year 1979, which continues as yet, expanding the campus and making it a rare centre not only of worship but also of social, cultural and intellectual upliftment.

श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ

तीर्थोद्धार मार्गदर्शक प्रतिष्ठाचार्य